चलो अब घर को चलते है
चलो अब घर को चलते है
बहुत अब खा चुके ठोकर
बहुत हम बन चुके जोकर।
तोड़ जंजीरें बंधन की
कटुता की, क्रंदन की
गलानी की, आडंबर की
पाखंड के समंदर की
नई है रोशनी देखो
सवेरा तम-तमाया हैं
सदी का यह पहर हमको
जगाने भर को आया हैं।
भुला कर गलतियां अपनी
उठो इतिहास बदलते हैं।
चलो अब घर को चलते हैं॥
दोराहे पर खडे हो क्यों
चलो अब रास्ता चुन लो
छोड़ कर पाप की नगरी
पुण्य की झोपड़ी बुन लो
छोड़ दो उन फिज़ाओं को
जो तुम्हारा हास करती हैं
जो हँसती हैं तुम्हारी जात
पर परिहास करती हैं
कभी वो थे नही अपने
जिन्हे अपना समझते हो
उठो पकड़ो वो पगडंडी
चलो किस्मत बदलते हैं।
चलो अब घर को चलते हैं॥
छोड़ दो झूठ का दामन
तुम्हें सच ने बुलाया हैं
हजारो वर्षो के अंतर मे
बौद्ध फिर मुस्कराया हैं
तुम्हारे मन की पीड़ा का
उसे अंदाज पूरा हैं
तुम उसके बिन अधूरे हो
वो भी तुम बिन अधूरा हैं
कदम उठना ही हैं एक दिन
क्यों न आज उठ जाए
दिया जलना ही हैं एक दिन
क्यों न आज जल जाए
मिटाना हैं अंधेरा तो
दीया खुद बन के जलते हैं।
चलो अब घर को चलते हैं॥
बुध्ह की बाहों मे बहता
समंदर सच का दरिया हैं
वही एक मात्र दुनिया मे
सही मुक्ति का जरिया हैं
सार है ज्ञान और
विज्ञान ही आधार हैं उसका
कसौटी पर खरा अनुभव
ही उदगार हैं उसका
वही हैं मात्र इस धरती पे
जिसने खुद को जाना हैं
धरा-आकाश के संबंध को
जिसने मन से पहचाना हैं
हैं जिसका अंश हम नादान
चलो उसमे ही मिलते हैं
चलो अब घर को चलते हैं॥
डॉ॰ राज कुमार